واأسفاه للقريحة التي أجْدَبَتْها ملهمتي، | |
تلك التي تملك مدى فسيحا تبرز فيه قوتها، | |
لو أنني كففت عن مدائحي إليك، ستظل أعلى مكانة وشأنا | |
مما تضيفه قصائدي إليك. | |
. | |
آه، لا تلمني إن لم أعد قادرا على كتابة شيء آخر! | |
تطلع إلى مرآتك، وسوف يطالعك على صفحتها | |
وجه يتجاوز بجماله ابداعي الشعري الفقير؛ | |
يخسف ما سطرته، ويجعلني أتوارى خجلاً. | |
. | |
أليس من الخطأ إذن أن أحاول إصلاح شيء، | |
فأفسد ما كان جميلاً من قبل؟ | |
لأن قصائدي لم تكتب لأي غرض آخر | |
سوى الاشادة بشمائلك وعطاياك؛ | |
. | |
وأكثر من ذلك، أكثر مما يمكن لقصائدي أن تحتويه، | |
تراه ظاهراً على صفحة مرآتك حينما تنظر فيها. | |
* | |
ترجمة: بدر توفيق | |
CIII | |
Alack! what poverty my Muse brings forth, | |
That having such a scope to show her pride, | |
The argument all bare is of more worth | |
Than when it hath my added praise beside! | |
O! blame me not, if I no more can write! | |
Look in your glass, and there appears a face | |
That over-goes my blunt invention quite, | |
Dulling my lines, and doing me disgrace. | |
Were it not sinful then, striving to mend, | |
To mar the subject that before was well? | |
For to no other pass my verses tend | |
Than of your graces and your gifts to tell; | |
And more, much more, than in my verse can sit, | |
Your own glass shows you when you look in it |
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احساس مجروح
السبت، 23 أكتوبر 2010
وليم شكسبير / William Shakespeare >> سونيت 103
مرسلة بواسطة
فرسان
في
1:25 م
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